सुहागलों की कहानी सुनते-सुनते आज भी मांग में सिंदूर भरे महिलाओं की आँखें नम हो जाती हैं, महालक्ष्मी व्रत की कथा सुनते-सुनते भी वे अपनी आँखों से बहते मोती को रोकने का प्रयास करती हैं याकि मुंशी प्रेमचंद की कहानियां झकझोर देती हैं। तो क्या कहानी पीड़ादायक ही होती है... नहीं कहानी की संवेदनायें पाठक को या श्रोताओं को दुःख या सुख के भावों को अंतस में झाँकने का अवसर प्रदान करती हैं। कल्पनाओं के साकार शब्दांकन से सृजित कहानियां आपके अंतस में छिपी पीड़ा के साथ एकाकार हो जाती हैं, उन्हें वास्तविकता का धरातल मिलता है और पाठकों को उसमें अपना अक्स नजर आता है। माटी की गंध से रचे बसे शब्द झकझोरते हैं और वेदना अनुगामिनी बन जाती है। लोग गलत कहते हैं कि कंक्रीट के जंगल में भला संवेदनाओं के सुमन खिल सकते हैं? जीवन कंटकीर्ण पथ का पथिक भले ही बन गया हो, पर जब भी उसकी दुखती नस पर चोट पहुंचती है वह दुःख और दर्द से कराह उठता है। कहानी केवल दर्द की सीढ़ियां चढ़कर हिमालयीन शिखर पर नहीं पहुंचती वह तो खुशी में भी आँखों से आँसू ला देते है। आनंद गुम हो चुका है, प्रसन्नता लापता है और खुशी कभी-कभार महसूस करने वाली वस्तु बन गई है, जैसे किसी डाक्टर ने मधुमेह के पीड़ित से कह दिया हो कि शुगर का सेवन कभी-कभी बहुत आवश्यकता पड़ने पर ही किया करो। हम खुशी का सेवन ऐसे ही करने लगे हैं। एक क्षणिक खुशी या वेदना से निकला एक आंसू आपको जीवित होने का अहसास करा देता है।
मेरी कहानियां सीमेन्टी बयार में धूल भरी राहों को खोजती है, उसका हर पात्र भटकता हुआ प्रतिबिम्ब है जिसे मातृत्व से प्यार है, जिसे अपनी माटी से स्नेह है जिसे अपने एकाकी हो जाने पर एतराज नहीं है, शायद समाज के वर्तमान परिवेश से निकले ये पात्र हमारा प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। कल्पनाशीलता से परे जीवंत स्वरूप लेकर वे हमसे प्रश्न कर रहे हैं और हम निरूत्तर हैं, हम निःशब्द हैं।